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मेरी रचनात्मक यात्रा

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फिलॉसफी

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इंदु का दर्शन

समाज के बीच रहते हुए मुझे जो अनुभव प्राप्त होता है उससे भीतर स्वयमेव तैयार होने लगता है यानी ली हुई चीज बाहर आती है एक रुप लेकर।यह सच है उसे बाहर लाने का माध्यम मैं होती हूं।भीतर वह कैसे बनती है, कैसे आकार ग्रहण करती होगी, किन-किन चीजों के मिश्रण से उसका स्वरूप निर्मित होता है। मैं नहीं जानती। मेरा काम इतना ही है कि मैं उसे एक रुप देती हूं बाहर लाने में ठीक वैसे जैसे कुम्हार की चाक पर चढ़ी मिट्टी कुम्हार के हाथों के स्पर्श से नयी-नयी आकृति पाती है।कौतूहल और जिज्ञासा के कारण कुछ लिखना है, यह अनुभूति मुझे होती है। मेरे लिए रचना एक रिलेक्सेशन है और आनंद भी।